न तुझ को मात हुई है न मुझ को मात हुई
सो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं
अहमद फ़राज़
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नासेहा तुझ को ख़बर क्या कि मोहब्बत क्या है
रोज़ आ जाता है समझाता है यूँ है यूँ है
अहमद फ़राज़
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पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं
अहमद फ़राज़
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क़ासिदा हम फ़क़ीर लोगों का
इक ठिकाना नहीं कि तुझ से कहें
अहमद फ़राज़
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क़ुर्बतें लाख ख़ूब-सूरत हों
दूरियों में भी दिलकशी है अभी
अहमद फ़राज़
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रात भर हँसते हुए तारों ने
उन के आरिज़ भी भिगोए होंगे
अहमद फ़राज़
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रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का
अहमद फ़राज़