दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें
दिल भी माना नहीं कि तुझ से कहें
आज तक अपनी बेकली का सबब
ख़ुद भी जाना नहीं कि तुझ से कहें
बे-तरह हाल-ए-दिल है और तुझ से
दोस्ताना नहीं कि तुझ से कहें
एक तू हर्फ़-ए-आश्ना था मगर
अब ज़माना नहीं कि तुझ से कहें
क़ासिदा हम फ़क़ीर लोगों का
इक ठिकाना नहीं कि तुझ से कहें
ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त
आब-ओ-दाना नहीं कि तुझ से कहें
अब तो अपना भी उस गली में 'फ़राज़'
आना जाना नहीं कि तुझ से कहें
ग़ज़ल
दुख फ़साना नहीं कि तुझ से कहें
अहमद फ़राज़