मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी
तिरे लिए मिरे दिल से दुआ निकलती है
अहमद फ़राज़
मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते
है कोई ख़्वाब की ताबीर बताने वाला
अहमद फ़राज़
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया
कि दिल का ज़हर मिरी चश्म-ए-तर से निकला था
अहमद फ़राज़
मय-कदे में क्या तकल्लुफ़ मय-कशी में क्या हिजाब
बज़्म-ए-साक़ी में अदब आदाब मत देखा करो
अहमद फ़राज़
मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर
अपने बंदों से तो पिंदार ख़ुदाई ले ले
अहमद फ़राज़
'मीर' के मानिंद अक्सर ज़ीस्त करता था 'फ़राज़'
था तो वो दीवाना सा शाइर मगर अच्छा लगा
अहमद फ़राज़
मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर
वो जो दीवानगी कि थी है अभी
अहमद फ़राज़