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कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो | शाही शायरी
kahte ho ab mere mazlum pe bedad na ho

ग़ज़ल

कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो
सितम-ईजाद हो फिर क्यूँ सितम ईजाद न हो

नहीं पैमान-ए-वफ़ा तुम ने नहीं बाँधा था
वो फ़साना ही ग़लत है जो तुम्हें याद न हो

तुम ने दिल को मिरे कुछ ऐसा किया है नाशाद
शाद करना भी जो अब चाहो तो ये शाद न हो

जो गिरफ़्तार तुम्हारा है वही है आज़ाद
जिस को आज़ाद करो तुम कभी आज़ाद न हो

मेरा मक़्सद कि वो ख़ुश हों मिरी ख़ामोशी से
उन को अंदेशा कि ये भी कोई फ़रियाद न हो

मैं न भूलूँ ग़म-ए-इश्क़ का एहसाँ 'वहशत'
उन को पैमान-ए-मोहब्बत जो नहीं याद न हो