आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
ये मयस्सर हो तो फिर क्यूँ कोई नाशाद रहे
इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
नाला पुर-शोर हो और ज़ोरों पे फ़रियाद रहे
दर्द का कुछ तो हो एहसास दिल-ए-इंसाँ में
सख़्त नाशाद है दाइम जो यहाँ शाद रहे
ऐ तिरे दाम-ए-मोहब्बत के दिल ओ जाँ सदक़े
शुक्र है क़ैद-ए-अलाइक़ से हम आज़ाद रहे
नाला ऐसा हो कि हो उस पे गुमान-ए-नग़्मा
रहे इस तरह अगर शिकवा-ए-बेदाद रहे
हर तरफ़ दाम बिछाए हैं हवस ने क्या क्या
क्या ये मुमकिन है यहाँ कोई दिल आज़ाद रहे
जब ये आलम हो कि मंडलाती हो हर सम्त को बर्क़
क्यूँ कोई नौहागर-ए-ख़िर्मन-ए-बर्बाद रहे
अब तसव्वुर में कहाँ शक्ल-ए-तमन्ना 'वहशत'
जिस को मुद्दत से न देखा हो वो क्या याद रहे
ग़ज़ल
आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
वहशत रज़ा अली कलकत्वी