क्या है कि आज चलते हो कतरा के राह से
देखो इधर निगाह मिला कर निगाह से
शर्म-ए-जफ़ा से छुपते हो तुम दाद-ख़्वाह से
उज़्र-ए-गुनह तुम्हारा है बद-तर गुनाह से
उन की हया ओ शर्म ने रक्खी है दिल की शर्म
क्या होगा जब निगाह मिलेगी निगाह से
इंसाफ़ भी यही है यही शान-ए-हुस्न भी
हाँ हाँ नज़र चुराओ क़तील-ए-निगाह से
बैतुस-सनम से दूर नहीं है हरम की राह
क्यूँ राह पूछें ज़ाहिद-ए-गुम-कर्दा-राह से
क्यूँ शिकवा हम करें अदम-ए-इल्तिफ़ात का
वो पूछते तो हैं निगह-ए-गाह-गाह से
ज़ाहिद हज़ार हैफ़ कि पहुँचा न कोई फ़ैज़
रिंदों के मय-कदे को तिरी ख़ानक़ाह से
परवानों का हुजूम है शम्अ-ए-जमाल पर
जीता फिरेगा कौन तिरी जल्वा-गाह से
शिकवा करूँ तुम्हारी जफ़ा का तो रू-सियाह
देखो न तुम मुझे निगाह-ए-उज़्र-ख़्वाह से
ख़ुशहाली-ए-रक़ीब से वो शाद शाद हैं
यानी हैं बे-ख़बर मिरे हाल-ए-तबाह से
गर्दन झुकी हुई है उठाते नहीं हैं सर
डर है उन्हें निगाह लड़ेगी निगाह से
निकला न कोई हैफ़ यहाँ क़ाबिल-ए-शिकार
सय्याद ख़ाली हाथ फिरा सैद-गाह से
हर चंद 'वहशत' अपनी ग़ज़ल थी गिरी हुई
महफ़िल सुख़न की गूँज उठी वाह वाह से
ग़ज़ल
क्या है कि आज चलते हो कतरा के राह से
वहशत रज़ा अली कलकत्वी