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साक़ी फ़ारुक़ी शायरी | शाही शायरी

साक़ी फ़ारुक़ी शेर

56 शेर

ये क्या तिलिस्म है क्यूँ रात भर सिसकता हूँ
वो कौन है जो दियों में जला रहा है मुझे

साक़ी फ़ारुक़ी




जिस की हवस के वास्ते दुनिया हुई अज़ीज़
वापस हुए तो उस की मोहब्बत ख़फ़ा मिली

साक़ी फ़ारुक़ी




अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएँगे इक दिन

साक़ी फ़ारुक़ी




अभी नज़र में ठहर ध्यान से उतर के न जा
इस एक आन में सब कुछ तबाह कर के न जा

साक़ी फ़ारुक़ी




अजब कि सब्र की मीआद बढ़ती जाती है
ये कौन लोग हैं फ़रियाद क्यूँ नहीं करते

साक़ी फ़ारुक़ी




बुझे लबों पे है बोसों की राख बिखरी हुई
मैं इस बहार में ये राख भी उड़ा दूँगा

साक़ी फ़ारुक़ी




दिल ही अय्यार है बे-वज्ह धड़क उठता है
वर्ना अफ़्सुर्दा हवाओं में बुलावा कैसा

साक़ी फ़ारुक़ी




दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल
ऐ रौशनी-फ़रोश अंधेरा न कर अभी

साक़ी फ़ारुक़ी




डूब जाने का सलीक़ा नहीं आया वर्ना
दिल में गिर्दाब थे लहरों की नज़र में हम थे

साक़ी फ़ारुक़ी