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साक़ी फ़ारुक़ी शायरी | शाही शायरी

साक़ी फ़ारुक़ी शेर

56 शेर

ख़ुदा के वास्ते मौक़ा न दे शिकायत का
कि दोस्ती की तरह दुश्मनी निभाया कर

साक़ी फ़ारुक़ी




लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं
वक़्त अकेला इसी सबब से है

साक़ी फ़ारुक़ी




मगर उन सीपियों में पानियों का शोर कैसा था
समुंदर सुनते सुनते कान बहरे कर लिए हम ने

साक़ी फ़ारुक़ी




मैं अपने शहर से मायूस हो के लौट आया
पुराने सोग बसे थे नए मकानों में

साक़ी फ़ारुक़ी




मैं अपनी आँखों से अपना ज़वाल देखता हूँ
मैं बेवफ़ा हूँ मगर बे-ख़बर न जान मुझे

साक़ी फ़ारुक़ी




मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला
साक़ी मिरे मिज़ाज का मौसम नहीं मिला

साक़ी फ़ारुक़ी




मैं ने चाहा था कि अश्कों का तमाशा देखूँ
और आँखों का ख़ज़ाना था कि ख़ाली निकला

साक़ी फ़ारुक़ी




मैं तो ख़ुदा के साथ वफ़ादार भी रहा
ये ज़ात का तिलिस्म मगर टूटता नहीं

साक़ी फ़ारुक़ी




मैं उन से भी मिला करता हूँ जिन से दिल नहीं मिलता
मगर ख़ुद से बिछड़ जाने का अंदेशा भी रहता है

साक़ी फ़ारुक़ी