दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी
ये सब्र का मक़ाम है गिर्या न कर अभी
जिस की सख़ावतों की ज़माने में धूम है
वो हाथ सो गया है तक़ाज़ा न कर अभी
नज़रें जला के देख मनाज़िर की आग में
असरार-ए-काएनात से पर्दा न कर अभी
ये ख़ामुशी का ज़हर नसों में उतर न जाए
आवाज़ की शिकस्त गवारा न कर अभी
दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल
ऐ रौशनी-फ़रोश अंधेरा न कर अभी
ग़ज़ल
दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी
साक़ी फ़ारुक़ी