शहर का शहर हुआ जान का प्यासा कैसा
साँस लेता है मिरे सामने सहरा कैसा
मिरे एहसास में ये आग भरी है किस ने
रक़्स करता है मिरी रूह में शोला कैसा
तेरी परछाईं हूँ नादान जुदाई कैसी
मेरी आँखों में फिरा ख़ौफ़ का साया कैसा
अपनी आँखों पे तुझे इतना भरोसा क्यूँ है
तेरे बीमार चले तू है मसीहा कैसा
ये नहीं याद कि पहचान हमारी क्या है
इक तमाशे के लिए स्वाँग रचाया कैसा
मत फिरी थी कि हरीफ़ाना चले दुनिया से
सोचते ख़ाक कि मव्वाज है दरिया कैसा
सुब्ह तक रात की ज़ंजीर पिघल जाएगी
लोग पागल हैं सितारों से उलझना कैसा
दिल ही अय्यार है बे-वजह धड़क उठता है
वर्ना अफ़्सुर्दा हवाओं में बुलावा कैसा
आज ख़ामोश हैं हंगामा उठाने वाले
हम नहीं हैं तो कराची हुआ तन्हा कैसा
ग़ज़ल
शहर का शहर हुआ जान का प्यासा कैसा
साक़ी फ़ारुक़ी