देखें कहता है ख़ुदा हश्र के दिन
तुम को क्या ग़ैर को क्या हम को क्या
सख़ी लख़नवी
आँखों से पा-ए-यार लगाने की है हवस
हल्क़ा हमारे चश्म का उस की रिकाब हो
सख़ी लख़नवी
दफ़्न हम हो चुके तो कहते हैं
इस गुनहगार का ख़ुदा-हाफ़िज़
सख़ी लख़नवी
चर्ख़ पर बद्र जिस को कहते हैं
यार का साग़र-ए-सिफ़ाली है
सख़ी लख़नवी
बोसा हर वक़्त रुख़ का लेता है
किस क़दर गेसू-ए-दोता है शोख़
सख़ी लख़नवी
बर्ग-ए-गुल आ मैं तेरे बोसे लूँ
तुझ में है ढंग यार के लब का
सख़ी लख़नवी
बहुत ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में दिन चढ़ गया
उठो सोने वालो फिर आएगी रात
सख़ी लख़नवी
बद्र और महर दो हैं नाम उन के
इक जमाली है एक जलाली है
सख़ी लख़नवी
बात करने में होंट लड़ते हैं
ऐसे तकरार का ख़ुदा-हाफ़िज़
सख़ी लख़नवी