मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं
कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं
जिगर मुरादाबादी
मोहब्बत सुल्ह भी पैकार भी है
ये शाख़-ए-गुल भी है तलवार भी है
जिगर मुरादाबादी
मुझे दे रहे हैं तसल्लियाँ वो हर एक ताज़ा पयाम से
कभी आ के मंज़र-ए-आम पर कभी हट के मंज़र-ए-आम से
जिगर मुरादाबादी
मुझी में रहे मुझ से मस्तूर हो कर
बहुत पास निकले बहुत दूर हो कर
जिगर मुरादाबादी
न ग़रज़ किसी से न वास्ता मुझे काम अपने ही काम से
तिरे ज़िक्र से तिरी फ़िक्र से तिरी याद से तिरे नाम से
जिगर मुरादाबादी
नियाज़ ओ नाज़ के झगड़े मिटाए जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाए जाते हैं
जिगर मुरादाबादी
पहले शराब ज़ीस्त थी अब ज़ीस्त है शराब
कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन
जिगर मुरादाबादी
राहत-ए-बे-ख़लिश अगर मिल भी गई तो क्या मज़ा
तल्ख़ी-ए-ग़म भी चाहिए बादा-ए-ख़ुश-गवार में
जिगर मुरादाबादी