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मोहब्बत सुल्ह भी पैकार भी है | शाही शायरी
mohabbat sulh bhi paikar bhi hai

ग़ज़ल

मोहब्बत सुल्ह भी पैकार भी है

जिगर मुरादाबादी

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मोहब्बत सुल्ह भी पैकार भी है
ये शाख़-ए-गुल भी है तलवार भी है

तबीअत इस तरफ़ ख़ुद्दार भी है
उधर नाज़ुक मिज़ाज-ए-यार भी है

अदा-ए-इश्क़ अदा-ए-यार भी है
बहुत सादा बहुत पुरकार भी है

ये फ़ित्ने जिन से इक दुनिया है नालाँ
इन्हीं से गर्मी-ए-बाज़ार भी है

जुनूँ के दम से है नज़्म-ए-दो-आलम
जुनूँ बरहम-ज़न-ए-अफ़्कार भी है

नफ़स पर है मदार-ए-ज़िंदगानी
नफ़स चलती हुई तलवार भी है

इसी इंसान में सब कुछ है पिन्हाँ
मगर ये मअरिफ़त दुश्वार भी है

वो बू-ए-गुल कि है जान-ए-चमन भी
क़यामत है चमन-बे-ज़ार भी है

यही दुनिया है निस्बत आँसुओं की
यही दुनिया तबस्सुम-ज़ार भी है

जहाँ वो हैं वहीं मेरा तसव्वुर
जहाँ मैं हूँ ख़याल-ए-यार भी है

ख़बर-दार ऐ सुबुक-सारान-ए-साहिल
ये साहिल ही कभी मंजधार भी है

ग़नीमत है कि इस दौर-ए-हवस में
तिरा मिलना बहुत दुश्वार भी है

जो कोई सुन सके तो निकहत-ए-गुल
शिकस्त-ए-रंग की झंकार भी है

उन आँखों की ज़हे मोजज़-बयानी
बहम इंकार भी इक़रार भी है