नियाज़ ओ नाज़ के झगड़े मिटाए जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाए जाते हैं
शुरू-ए-राह-ए-मोहब्बत अरे मआज़-अल्लाह
ये हाल है कि क़दम डगमगाए जाते हैं
ये नाज़-ए-हुस्न तो देखो कि दिल को तड़पा कर
नज़र मिलाते नहीं मुस्कुराए जाते हैं
मिरे जुनून-ए-तमन्ना का कुछ ख़याल नहीं
लजाए जाते हैं दामन छुड़ाए जाते हैं
जो दिल से उठते हैं शोले वो रंग बन बन कर
तमाम मंज़र-ए-फ़ितरत पे छाए जाते हैं
मैं अपनी आह के सदक़े कि मेरी आह में भी
तिरी निगाह के अंदाज़ पाए जाते हैं
रवाँ दवाँ लिए जाती है आरज़ू-ए-विसाल
कशाँ कशाँ तिरे नज़दीक आए जाते हैं
कहाँ मनाज़़िल-ए-हस्ती कहाँ हम अहल-ए-फ़ना
अभी कुछ और ये तोहमत उठाए जाते हैं
मिरी तलब भी उसी के करम का सदक़ा है
क़दम ये उठते नहीं हैं उठाए जाते हैं
इलाही तर्क-ए-मोहब्बत भी क्या मोहब्बत है
भुलाते हैं उन्हें वो याद आए जाते हैं
सुनाए थे लब-ए-नय से किसी ने जो नग़्मे
लब-ए-'जिगर' से मुकर्रर सुनाए जाते हैं
ग़ज़ल
नियाज़ ओ नाज़ के झगड़े मिटाए जाते हैं
जिगर मुरादाबादी