होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े
इक़बाल साजिद
अन्दर थी जितनी आग वो ठंडी न हो सकी
पानी था सिर्फ़ घास के ऊपर पड़ा हुआ
इक़बाल साजिद
अपनी अना की आज भी तस्कीन हम ने की
जी भर के उस के हुस्न की तौहीन हम ने की
इक़बाल साजिद
बढ़ गया है इस क़दर अब सुर्ख़-रू होने का शौक़
लोग अपने ख़ून से जिस्मों को तर करने लगे
इक़बाल साजिद
बगूला बन के समुंदर में ख़ाक उड़ाना था
कि लहर लहर मुझे तुंद-ख़ू भी होना था
इक़बाल साजिद
दरवेश नज़र आता था हर हाल में लेकिन
'साजिद' ने लिबास इतना भी सादा नहीं पहना
इक़बाल साजिद
एक भी ख़्वाहिश के हाथों में न मेहंदी लग सकी
मेरे जज़्बों में न दूल्हा बन सका अब तक कोई
इक़बाल साजिद
फ़िक्र-ए-मेआर-ए-सुख़न बाइस-ए-आज़ार हुई
तंग रक्खा तो हमें अपनी क़बा ने रक्खा
इक़बाल साजिद
ग़ुर्बत की तेज़ आग पे अक्सर पकाई भूक
ख़ुश-हालियों के शहर में क्या कुछ नहीं किया
इक़बाल साजिद