अपनी अना की आज भी तस्कीन हम ने की
जी भर के उस के हुस्न की तौहीन हम ने की
लहजे की तेज़ धार से ज़ख़्मी किया उसे
पैवस्त दिल में लफ़्ज़ की संगीन हम ने की
लाए ब-रू-ए-कार न हुस्न ओ जमाल को
मौक़ा था फिर भी रात न रंगीन हम ने की
जी भर के दिल की मौत पे रोने दिया उसे
पुर्सा दिया न सब्र की तल्क़ीन हम ने की
दरिया की सैर करने अकेले चले गए
शाम-ए-शफ़क़ की आप ही तहसीन हम ने की
ग़ज़ल
अपनी अना की आज भी तस्कीन हम ने की
इक़बाल साजिद