अब तू दरवाज़े से अपने नाम की तख़्ती उतार
लफ़्ज़ नंगे हो गए शोहरत भी गाली हो गई
इक़बाल साजिद
जैसे हर चेहरे की आँखें सर के पीछे आ लगीं
सब के सब उल्टे ही क़दमों से सफ़र करने लगे
इक़बाल साजिद
कट गया जिस्म मगर साए तो महफ़ूज़ रहे
मेरा शीराज़ा बिखर कर भी मिसाली निकला
इक़बाल साजिद
मारा किसी ने संग तो ठोकर लगी मुझे
देखा तो आसमाँ था ज़मीं पर पड़ा हुआ
इक़बाल साजिद
मैं आईना बनूँगा तू पत्थर उठाएगा
इक दिन खुली सड़क पे ये नौबत भी आएगी
इक़बाल साजिद
मैं ख़ून बहा कर भी हुआ बाग़ में रुस्वा
उस गुल ने मगर काम पसीने से निकाला
इक़बाल साजिद
मैं तिरे दर का भिकारी तू मिरे दर का फ़क़ीर
आदमी इस दौर में ख़ुद्दार हो सकता नहीं
इक़बाल साजिद
मिले मुझे भी अगर कोई शाम फ़ुर्सत की
मैं क्या हूँ कौन हूँ सोचूँगा अपने बारे में
इक़बाल साजिद