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कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े | शाही शायरी
kaTte hi sang-e-lafz girani nikal paDe

ग़ज़ल

कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े

इक़बाल साजिद

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कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े
शीशा उठा कि जू-ए-मआनी निकल पड़े

प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े

मुझ को है मौज मौज गिरह बाँधने का शौक़
फिर शहर की तरफ़ न रवानी निकल पड़े

होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े

'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पड़े