कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े
शीशा उठा कि जू-ए-मआनी निकल पड़े
प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
मारो ज़मीं पे पाँव कि पानी निकल पड़े
मुझ को है मौज मौज गिरह बाँधने का शौक़
फिर शहर की तरफ़ न रवानी निकल पड़े
होते ही शाम जलने लगा याद का अलाव
आँसू सुनाने दुख की कहानी निकल पड़े
'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
मुमकिन है कोई याद पुरानी निकल पड़े
ग़ज़ल
कटते ही संग-ए-लफ़्ज़ गिरानी निकल पड़े
इक़बाल साजिद