ख़ौफ़ दिल में न तिरे दर के गदा ने रक्खा
दिन को कश्कोल भरा शब को सिरहाने रक्खा
फ़िक्र-ए-मेआर-ए-सुख़न बाइस-ए-आज़ार हुई
तंग रक्खा तो हमें अपनी क़बा ने रक्खा
रात फ़ुट-पाथ पे दिन भर की थकन काम आई
उस का बिस्तर भी क्या सर पे भी ताने रक्खा
ख़ौफ़ आया नहीं साँपों के घने जंगल में
मुझ को महफ़ूज़ मिरी माँ की दुआ ने रक्खा
ये अलग बात समुंदर पे वो बरसी 'साजिद'
और किसी खेत को प्यासा न घटा ने रक्खा
ग़ज़ल
ख़ौफ़ दिल में न तिरे दर के गदा ने रक्खा
इक़बाल साजिद