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हफ़ीज़ जालंधरी शायरी | शाही शायरी

हफ़ीज़ जालंधरी शेर

79 शेर

मिरे डूब जाने का बाइस न पूछो
किनारे से टकरा गया था सफ़ीना

हफ़ीज़ जालंधरी




मिरा तजरबा है कि इस ज़िंदगी में
परेशानियाँ ही परेशानियाँ हैं

हफ़ीज़ जालंधरी




मेरी क़िस्मत के नविश्ते को मिटा दे कोई
मुझ को क़िस्मत के नविश्ते ने मिटा रक्खा है

हफ़ीज़ जालंधरी




मैं वो बस्ती हूँ कि याद-ए-रफ़्तगाँ के भेस में
देखने आती है अब मेरी ही वीरानी मुझे

हफ़ीज़ जालंधरी




मबादा फिर असीर-ए-दाम-ए-अक़्ल-ओ-होश हो जाऊँ
जुनूँ का इस तरह अच्छा नहीं हद से गुज़र जाना

हफ़ीज़ जालंधरी




क्यूँ हिज्र के शिकवे करता है क्यूँ दर्द के रोने रोता है
अब इश्क़ किया तो सब्र भी कर इस में तो यही कुछ होता है

हफ़ीज़ जालंधरी




कोई दवा न दे सके मशवरा-ए-दुआ दिया
चारागरों ने और भी दर्द दिल का बढ़ा दिया

हफ़ीज़ जालंधरी




कोई चारह नहीं दुआ के सिवा
कोई सुनता नहीं ख़ुदा के सिवा

हफ़ीज़ जालंधरी




किस मुँह से कह रहे हो हमें कुछ ग़रज़ नहीं
किस मुँह से तुम ने व'अदा किया था निबाह का

हफ़ीज़ जालंधरी