है अज़ल की इस ग़लत बख़्शी पे हैरानी मुझे
इश्क़ ला-फ़ानी मिला है ज़िंदगी फ़ानी मुझे
मैं वो बस्ती हूँ कि याद-ए-रफ़्तगाँ के भेस में
देखने आती है अब मेरी ही वीरानी मुझे
थी यही तम्हीद मेरे मातमी अंजाम की
फूल हँसते हैं तो होती है पशीमानी मुझे
हुस्न बे-पर्दा हुआ जाता है या रब क्या करूँ
अब तो करनी ही पड़ी दिल की निगहबानी मुझे
बाँध कर रोज़-ए-अज़ल शीराज़ा-ए-मर्ग-ओ-हयात
सौंप दी गोया दो आलम की परेशानी मुझे
पूछता फिरता था दानाओं से उल्फ़त के रुमूज़
याद अब रह रह के आती है वो नादानी मुझे
ग़ज़ल
है अज़ल की इस ग़लत बख़्शी पे हैरानी मुझे
हफ़ीज़ जालंधरी