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हफ़ीज़ जालंधरी शायरी | शाही शायरी

हफ़ीज़ जालंधरी शेर

79 शेर

सुपुर्द-ए-ख़ाक ही करना था मुझ को
तो फिर काहे को नहलाया गया हूँ

हफ़ीज़ जालंधरी




सुनाता है क्या हैरत-अंगेज़ क़िस्से
हसीनों में खोई हो जिस ने जवानी

हफ़ीज़ जालंधरी




रंग बदला यार ने वो प्यार की बातें गईं
वो मुलाक़ातें गईं वो चाँदनी रातें गईं

हफ़ीज़ जालंधरी




क़ाएम किया है मैं ने अदम के वजूद को
दुनिया समझ रही है फ़ना हो गया हूँ मैं

हफ़ीज़ जालंधरी




ब-ज़ाहिर सादगी से मुस्कुरा कर देखने वालो
कोई कम-बख़्त ना-वाक़िफ़ अगर दीवाना हो जाए

हफ़ीज़ जालंधरी




दिल ने आँखों तक आने में इतना वक़्त लिया
दूर था कैसे ये बुत-ख़ाना अब मालूम हुआ

हफ़ीज़ जालंधरी




दिल लगाओ तो लगाओ दिल से दिल
दिल-लगी ही दिल-लगी अच्छी नहीं

हफ़ीज़ जालंधरी




दिल को ख़ुदा की याद तले भी दबा चुका
कम-बख़्त फिर भी चैन न पाए तो क्या करूँ

हफ़ीज़ जालंधरी




देखा न कारोबार-ए-मोहब्बत कभी 'हफ़ीज़'
फ़ुर्सत का वक़्त ही न दिया कारोबार ने

हफ़ीज़ जालंधरी