'बाक़ी' जो चुप रहोगे तो उट्ठेंगी उँगलियाँ
है बोलना भी रस्म-ए-जहाँ बोलते रहो
बाक़ी सिद्दीक़ी
बंद कलियों की अदा कहती है
बात करने के हैं सौ पैराए
बाक़ी सिद्दीक़ी
दिल की दीवार गिर गई शायद
अपनी आवाज़ कान में आई
बाक़ी सिद्दीक़ी
दिल में जब बात नहीं रह सकती
किसी पत्थर को सुना देते हैं
बाक़ी सिद्दीक़ी
दोस्त हर ऐब छुपा लेते हैं
कोई दुश्मन भी तिरा है कि नहीं
बाक़ी सिद्दीक़ी
दोस्ती ख़ून-ए-जिगर चाहती है
काम मुश्किल है तो रस्ता देखो
बाक़ी सिद्दीक़ी
दुनिया ने हर बात में क्या क्या रंग भरे
हम सादा औराक़ उलटते जाते हैं
बाक़ी सिद्दीक़ी
एक दीवार उठाने के लिए
एक दीवार गिरा देते हैं
बाक़ी सिद्दीक़ी
एक पल में वहाँ से हम उट्ठे
बैठने में जहाँ ज़माने लगे
बाक़ी सिद्दीक़ी