यूँ भी होने का पता देते हैं
अपनी ज़ंजीर हिला देते हैं
पहले हर बात पे हम सोचते थे
अब फ़क़त हाथ उठा देते हैं
क़ाफ़िला आज कहाँ ठहरेगा
क्या ख़बर आबला-पा देते हैं
बाज़-औक़ात हवा के झोंके
लौ चराग़ों की बढ़ा देते हैं
दिल में जब बात नहीं रह सकती
किसी पत्थर को सुना देते हैं
एक दीवार उठाने के लिए
एक दीवार गिरा देते हैं
सोचते हैं सर-ए-साहिल 'बाक़ी'
ये समुंदर हमें क्या देते हैं
ग़ज़ल
यूँ भी होने का पता देते हैं
बाक़ी सिद्दीक़ी