कहता है हर मकीं से मकाँ बोलते रहो
इस चुप में भी है जी का ज़ियाँ बोलते रहो
हर याद हर ख़याल है लफ़्ज़ों का सिलसिला
ये महफ़िल-ए-नवा है यहाँ बोलते रहो
मौज-ए-सदा-ए-दिल पे रवाँ है हिसार-ए-ज़ीस्त
जिस वक़्त तक है मुँह में ज़बाँ बोलते रहो
अपना लहू ही रंग है अपनी तपिश ही बू
हो फ़स्ल-ए-गुल कि दौर-ए-ख़िज़ाँ बोलते रहो
क़दमों पे बार होते हैं सुनसान रास्ते
लम्बा सफ़र है हम-सफ़राँ बोलते रहो
है ज़िंदगी भी टूटा हुआ आइना तो क्या
तुम भी ब-तर्ज़-ए-शीशा-गराँ बोलते रहो
'बाक़ी' जो चुप रहोगे तो उट्ठेंगी उँगलियाँ
है बोलना भी रस्म-ए-जहाँ बोलते रहो
ग़ज़ल
कहता है हर मकीं से मकाँ बोलते रहो
बाक़ी सिद्दीक़ी