वक़्त रस्ते में खड़ा है कि नहीं
दिल से अब पूछ ख़ुदा है कि नहीं
सोहबत-ए-शीशा-गराँ है इंकार
संग आईना बना है कि नहीं
हर किरन वक़्त-ए-सहर कहती है
रौज़न-ए-दिल कोई वा है कि नहीं
रंग हर बात में भरने वालो
क़िस्सा कुछ आगे बढ़ा है कि नहीं
ज़िंदगी जुर्म बनी जाती है
जुर्म की कोई सज़ा है कि नहीं
दोस्त हर ऐब छुपा लेते हैं
कोई दुश्मन भी तिरा है कि नहीं
ज़ख़्म-ए-दिल मंज़िल-ए-जाँ तक आए
संग-ए-रह साथ चला है कि नहीं
खो गए राह के सन्नाटे में
अब कोई दिल की सदा है कि नहीं
हम तरसने लगे बू-ए-गुल को
कहीं गुलशन में सबा है कि नहीं
हुक्म-ए-हाकिम है कि ख़ामोश रहो
बोलो अब कोई गिला है कि नहीं
चुप तो हो जाते हैं लेकिन 'बाक़ी'
इस में भी अपना भला है कि नहीं
ग़ज़ल
वक़्त रस्ते में खड़ा है कि नहीं
बाक़ी सिद्दीक़ी