तारे दर्द के झोंके बन कर आते हैं
हम भी नींद की सूरत उड़ते जाते हैं
जब अंदाज़ बहारों के याद आते हैं
हम काग़ज़ पर क्या क्या फूल बनाते हैं
वक़्त का पत्थर भारी होता जाता है
हम मिट्टी की सूरत देते जाते हैं
क्या ज़र्रों का जोश सबा ने छीन लिया
गुलशन में क्यूँ याद बगूले आते हैं
दुनिया ने हर बात में क्या क्या रंग भरे
हम सादा औराक़ उलटते जाते हैं
दिल नादाँ है शायद राह पे आ जाए
तुम भी समझाओ हम भी समझाते हैं
तुम भी उल्टी उल्टी बातें पूछते हो
हम भी कैसी कैसी क़समें खाते हैं
बैठ के रोएँ किस को फ़ुर्सत है 'बाक़ी'
भूले-बिसरे क़िस्से याद तो आते हैं
ग़ज़ल
तारे दर्द के झोंके बन कर आते हैं
बाक़ी सिद्दीक़ी