दाग़-ए-दिल हम को याद आने लगे
लोग अपने दिए जलाने लगे
कुछ न पा कर भी मुतमइन हैं हम
इश्क़ में हाथ क्या ख़ज़ाने लगे
यही रस्ता है अब यही मंज़िल
अब यहीं दिल किसी बहाने लगे
ख़ुद-फ़रेबी सी ख़ुद-फ़रेबी है
पास के ढोल भी सुहाने लगे
अब तो होता है हर क़दम पे गुमाँ
हम ये कैसा क़दम उठाने लगे
इस बदलते हुए ज़माने में
तेरे क़िस्से भी कुछ पुराने लगे
रुख़ बदलने लगा फ़साने का
लोग महफ़िल से उठ के जाने लगे
एक पल में वहाँ से हम उट्ठे
बैठने में जहाँ ज़माने लगे
अपनी क़िस्मत से है मफ़र किस को
तीर पर उड़ के भी निशाने लगे
हम तक आए न आए मौसम-ए-गुल
कुछ परिंदे तो चहचहाने लगे
शाम का वक़्त हो गया 'बाक़ी'
बस्तियों से शरार आने लगे
ग़ज़ल
दाग़-ए-दिल हम को याद आने लगे
बाक़ी सिद्दीक़ी