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अंजुम ख़लीक़ शायरी | शाही शायरी

अंजुम ख़लीक़ शेर

39 शेर

ज़रा सी मैं ने तरजीहात की तरतीब बदली थी
कि आपस में उलझ कर रह गए दुनिया ओ दीं मेरे

अंजुम ख़लीक़




ज़रफ़िशाँ है मिरी ज़रख़ेज़ ज़मीनों का बदन
ज़र्रा ज़र्रा मिरे पंजाब का पारस निकला

अंजुम ख़लीक़




इक ग़ज़ल लिक्खी तो ग़म कोई पुराना जागा
फिर उसी ग़म के सबब एक ग़ज़ल और कही

अंजुम ख़लीक़




अल्लाह के घर देर है अंधेर नहीं है
तू यास के मौसम में भी उम्मीद का फ़न सीख

अंजुम ख़लीक़




अज़िय्यतों की भी अपनी ही एक लज़्ज़त है
मैं शहर शहर फिरूँ नेकियाँ तलाश करूँ

अंजुम ख़लीक़




बहुत साबित-क़दम निकलें गए वक़्तों की तहज़ीबें
कि अब उन के हवालों से खंडर आबाद होते हैं

अंजुम ख़लीक़




बस ऐ निगार-ए-ज़ीस्त यक़ीं आ गया हमें
ये तेरी बे-रुख़ी ये तअम्मुल न जाएगा

अंजुम ख़लीक़




बीते हुए लम्हात को पहचान में रखना
मुरझाए हुए फूल भी गुल-दान में रखना

अंजुम ख़लीक़




फ़िराक़-रुत में भी कुछ लज़्ज़तें विसाल की हैं
ख़याल ही में तिरे ख़ाल-ओ-ख़द उभारा करें

अंजुम ख़लीक़