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जब तक फ़सील-ए-जिस्म का दर खुल न जाएगा | शाही शायरी
jab tak fasil-e-jism ka dar khul na jaega

ग़ज़ल

जब तक फ़सील-ए-जिस्म का दर खुल न जाएगा

अंजुम ख़लीक़

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जब तक फ़सील-ए-जिस्म का दर खुल न जाएगा
इस दिल की यूरिशों का तसलसुल न जाएगा

ख़ेमों से ता-फ़ुरात जो दरिया-ए-ख़ूँ है ये
उस पर से मस्लहत का कोई पुल न जाएगा

उस को गुमाँ नहीं था कि अहद-ए-ख़िज़ाँ में भी
ये ज़ौक़-ए-नग़्मा-रेज़ी-ए-बुलबुल न जाएगा

ये अब्र-ए-आगही जो बरसता रहा यूँही
मिट्टी का ये वजूद मिरा घुल न जाएगा

गिरता रहेगा यूँही बलाओं का आबशार
जब तक ग़ुबार-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र धुल न जाएगा

वो शख़्स तो ख़ुदाई के दावे पे तुल गया
इस हद पे हम समझते थे बिल्कुल न जाएगा

बस ऐ निगार-ए-ज़ीस्त यक़ीं आ गया हमें
ये तेरी बे-रुख़ी ये तअम्मुल न जाएगा

'अंजुम' निगार-ए-ज़ीस्त को फिर चाहिए वही
इक सर जो ख़्वाहिशों के एवज़ तुल न जाएगा