जब तक फ़सील-ए-जिस्म का दर खुल न जाएगा
इस दिल की यूरिशों का तसलसुल न जाएगा
ख़ेमों से ता-फ़ुरात जो दरिया-ए-ख़ूँ है ये
उस पर से मस्लहत का कोई पुल न जाएगा
उस को गुमाँ नहीं था कि अहद-ए-ख़िज़ाँ में भी
ये ज़ौक़-ए-नग़्मा-रेज़ी-ए-बुलबुल न जाएगा
ये अब्र-ए-आगही जो बरसता रहा यूँही
मिट्टी का ये वजूद मिरा घुल न जाएगा
गिरता रहेगा यूँही बलाओं का आबशार
जब तक ग़ुबार-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र धुल न जाएगा
वो शख़्स तो ख़ुदाई के दावे पे तुल गया
इस हद पे हम समझते थे बिल्कुल न जाएगा
बस ऐ निगार-ए-ज़ीस्त यक़ीं आ गया हमें
ये तेरी बे-रुख़ी ये तअम्मुल न जाएगा
'अंजुम' निगार-ए-ज़ीस्त को फिर चाहिए वही
इक सर जो ख़्वाहिशों के एवज़ तुल न जाएगा
ग़ज़ल
जब तक फ़सील-ए-जिस्म का दर खुल न जाएगा
अंजुम ख़लीक़