बीते हुए लम्हात को पहचान में रखना
मुरझाए हुए फूल भी गुल-दान में रखना
क्या जानें सफ़र ख़ैर से गुज़रे कि न गुज़रे
तुम घर का पता भी मिरे सामान में रखना
क्या दिन थे मुझे शौक़ से मेहमान बुलाना
और ख़ुद को मगर ख़िदमत-ए-मेहमान में रखना
क्या वक़्त था क्या वक़्त है इस सोच से हासिल
छोड़ो जो हुआ क्या उसे मीज़ान में रखना
इंसान की निय्यत का भरोसा नहीं कोई
मिलते हो तो इस बात को इम्कान में रखना
पुर्सिश है बहुत सख़्त वहाँ फ़र्द-ए-अमल की
कुछ नअत के अशआ'र भी दीवान में रखना
मुख़्लिस हो रहो टोका है किस ने तुम्हें 'अंजुम'
रफ़्तार-ए-ज़माना भी मगर ध्यान में रखना
ग़ज़ल
बीते हुए लम्हात को पहचान में रखना
अंजुम ख़लीक़