हम अपने ज़ौक़-ए-सफ़र को सफ़र सितारा करें 
न कोई ज़ाइचा खींचें न इस्तिख़ारा करें 
उसी से लफ़्ज़ बने माँ भी एक है जिन में 
तो कैसे हर्फ़ की बे-हुरमती गवारा करें 
उसी शरर को जो इक अहद-ए-यास ने बख़्शा 
कभी दिया कभी जुगनू कभी सितारा करें 
शुऊ'र-ए-शे'र ने वो आँख खोल दी दिल में 
कि अब तो हम पस-ए-इम्कान भी नज़ारा करें 
फ़िराक़-रुत में भी कुछ लज़्ज़तें विसाल की हैं 
ख़याल ही में तिरे ख़ाल-ओ-ख़द उभारा करें 
इलाही खोल दे हम पर दर-ए-मदीना-ए-इल्म 
अली अली इसी उम्मीद पर पुकारा करें 
असा नहीं न सही हम फ़क़ीर लोग मगर 
हों मौज में तो तलातुम को ही किनारा करें 
ख़ुदा का शुक्र है सब ज़र-पसंद जाह-तलब 
हमारी सोहबत-ए-बे-फ़ैज़ से किनारा करें 
मिले जो वक़्त तो 'अंजुम' ब-सूरत-ए-दीवान 
मुरत्तब अपनी रियाज़त का गोश्वारा करें
        ग़ज़ल
हम अपने ज़ौक़-ए-सफ़र को सफ़र सितारा करें
अंजुम ख़लीक़

