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हम अपने ज़ौक़-ए-सफ़र को सफ़र सितारा करें | शाही शायरी
hum apne zauq-e-safar ko safar sitara karen

ग़ज़ल

हम अपने ज़ौक़-ए-सफ़र को सफ़र सितारा करें

अंजुम ख़लीक़

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हम अपने ज़ौक़-ए-सफ़र को सफ़र सितारा करें
न कोई ज़ाइचा खींचें न इस्तिख़ारा करें

उसी से लफ़्ज़ बने माँ भी एक है जिन में
तो कैसे हर्फ़ की बे-हुरमती गवारा करें

उसी शरर को जो इक अहद-ए-यास ने बख़्शा
कभी दिया कभी जुगनू कभी सितारा करें

शुऊ'र-ए-शे'र ने वो आँख खोल दी दिल में
कि अब तो हम पस-ए-इम्कान भी नज़ारा करें

फ़िराक़-रुत में भी कुछ लज़्ज़तें विसाल की हैं
ख़याल ही में तिरे ख़ाल-ओ-ख़द उभारा करें

इलाही खोल दे हम पर दर-ए-मदीना-ए-इल्म
अली अली इसी उम्मीद पर पुकारा करें

असा नहीं न सही हम फ़क़ीर लोग मगर
हों मौज में तो तलातुम को ही किनारा करें

ख़ुदा का शुक्र है सब ज़र-पसंद जाह-तलब
हमारी सोहबत-ए-बे-फ़ैज़ से किनारा करें

मिले जो वक़्त तो 'अंजुम' ब-सूरत-ए-दीवान
मुरत्तब अपनी रियाज़त का गोश्वारा करें