आज भी उस के मिरे बीच है दुनिया हाइल
आज भी उस के मिरे बीच की मुश्किल है वही
ऐन ताबिश
बे-हुनर देख न सकते थे मगर देखने आए
देख सकते थे मगर अहल-ए-हुनर देख न पाए
ऐन ताबिश
एक बस्ती थी हुई वक़्त के अंदोह में गुम
चाहने वाले बहुत अपने पुराने थे उधर
ऐन ताबिश
एक ख़ुश्बू थी जो मल्बूस पे ताबिंदा थी
एक मौसम था मिरे सर पे जो तूफ़ानी था
ऐन ताबिश
है एक ही लम्हा जो कहीं वस्ल कहीं हिज्र
तकलीफ़ किसी के लिए आराम किसी का
ऐन ताबिश
हर ऐसे-वैसे से क़ुफ़्ल-ए-क़फ़स नहीं खुलता
इस इम्तिहाँ के लिए कुछ हक़ीर होते हैं
ऐन ताबिश
इक ज़रा चैन भी लेते नहीं 'ताबिश'-साहब
मुल्क-ए-ग़म से नए फ़रमान निकल आते हैं
ऐन ताबिश
इसी क़दर है हयात ओ अजल के बीच का फ़र्क़
ये एक धूप का दरिया वो इक किनारा-ए-शाम
ऐन ताबिश
जी लगा रक्खा है यूँ ताबीर के औहाम से
ज़िंदगी क्या है मियाँ बस एक घर ख़्वाबों का है
ऐन ताबिश