कैसे अफ़्सूँ थे वहाँ कैसे फ़साने थे उधर
ज़िंदगी तुझ से तअल्लुक़ के बहाने थे उधर
क्या अजब ख़्वाब के ख़ुशबू के ठिकाने थे उधर
अब तो कुछ याद नहीं कौन ज़माने थे उधर
ये नहीं याद कि वो बाग़ था किस कूचे में
इस क़दर याद है कुछ फूल खिलाने थे उधर
एक बस्ती थी हुई वक़्त के अंदोह में गुम
चाहने वाले बहुत अपने पुराने थे उधर
हम इधर आए तो वो अर्ज़-ए-करम छूटेगी
मम्लिकत इश्क़ की थी ग़म के ख़ज़ाने थे उधर
ग़ज़ल
कैसे अफ़्सूँ थे वहाँ कैसे फ़साने थे उधर
ऐन ताबिश