ख़ाकसारी थी कि बिन देखे ही हम ख़ाक हुए
और कभी मारका-ए-फ़तह-ओ-ज़फ़र देख न पाए
उस ने देखा है तो फिर देखना क्या हो जाए
देखते रहना है ज़ालिम को इधर देख न पाए
बे-हुनर देख न सकते थे मगर देखने आए
देख सकते थे मगर अहल-ए-हुनर देख न पाए
हो गए ख़्वाहिश-ए-नज़्ज़ारा से बे-ख़ुद इतने
देखना चाहते थे उस को मगर देख न पाए
कब उसे लौट के देखेंगे ये देखा जाए
हम ने दुनिया तो बहुत देख ली घर देख न पाए
लोग जब देखने पर आए तो इतना देखा
आँख पथरा गई और हद-ए-नज़र देख न पाए
वो भी क्या देखना था देखने वाले बोले
जल्वा हर-चंद रहा पेश-ए-नज़र देख न पाए
दीप जलते रहे ताक़ों में उजाला न हुआ
आँख पाबंद-ए-तहय्युर थी उधर देख न पाए
ये तयक़्क़ुन नहीं होता था किधर देख सके
ये तअय्युन नहीं होता था किधर देख न पाए
वो तग़ाफ़ुल था कि उस ने हमें देखा ही नहीं
वो तसाहुल था कि हम उस की नज़र देख न पाए
इस क़दर तेज़ चली अब के हवा-ए-ना-बूद
चाह कर शहर-ए-तमन्ना का खंडर देख न पाए
यूँ हुआ दिल-ज़दगाँ लौट गए आख़िर-ए-शब
रात तो जाग के काटी थी सहर देख न पाए
किस ने देखी है उजालों से सुलगती हुई रात
और जो देख सके ख़्वाब-ए-सहर देख न पाए
ग़ज़ल
ख़ाकसारी थी कि बिन देखे ही हम ख़ाक हुए
ऐन ताबिश