मैं अपना कार-ए-वफ़ा आज़माऊँगा फिर भी
कहाँ मैं तेरे सितम याद करने वाला हूँ
ऐन ताबिश
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मैं उस घड़ी अपने आप का सामना भी करने से भागता हूँ
वो ज़ीना ज़ीना उतरने वाली शबीह जब मुझ में जागती है
ऐन ताबिश
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रोज़ इक मर्ग का आलम भी गुज़रता है यहाँ
रोज़ जीने के भी सामान निकल आते हैं
ऐन ताबिश
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तू जो इस दुनिया की ख़ातिर अपना-आप गँवाता है
ऐ दिल-ए-मन ऐ मेरे मुसाफ़िर काम है ये नादानों का
ऐन ताबिश
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