लोग बे-मेहर न होते होंगे
वहम सा दिल को हुआ था शायद
अदा जाफ़री
न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम
रहा ये वहम कि हम हैं सो वो भी क्या मालूम
फ़ानी बदायुनी
हम जौर-परस्तों पे गुमाँ तर्क-ए-वफ़ा का
ये वहम कहीं तुम को गुनहगार न कर दे
हसरत मोहानी
वहम ये तुझ को अजब है ऐ जमाल-ए-कम-नुमा
जैसे सब कुछ हो मगर तू दीद के क़ाबिल न हो
मुनीर नियाज़ी
कब तक नजात पाएँगे वहम ओ यक़ीं से हम
उलझे हुए हैं आज भी दुनिया ओ दीं से हम
सबा अकबराबादी
क्या जाने उसे वहम है क्या मेरी तरफ़ से
जो ख़्वाब में भी रात को तन्हा नहीं आता
I wonder to what misgivings she is prone
that even in my dreams she's not alone
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़