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न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मा'लूम | शाही शायरी
na ibtida ki KHabar hai na intiha malum

ग़ज़ल

न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मा'लूम

फ़ानी बदायुनी

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न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मा'लूम
रहा ये वहम कि हम हैं सो वो भी क्या मा'लूम

दुआ तो ख़ैर दुआ से उमीद-ए-ख़ैर भी है
ये मुद्दआ' है तो अंजाम-ए-मुद्दआ मा'लूम

हुआ न राज़-ए-रज़ा फ़ाश वो तो ये कहिए
मिरे नसीब में थी वर्ना सई-ए-ना-मा'लूम

मिरी वफ़ा के सिवा ग़ायत-ए-जफ़ा क्यूँ हो
तिरी जफ़ा के सिवा हासिल-ए-वफ़ा मा'लूम

कुछ उन के रहम पे थी यूँ ही ज़िंदगी मौक़ूफ़
कि उन को राज़-ए-मोहब्बत भी हो गया मा'लूम

तिरे ख़याल के असरार बे-ख़ुदी में खुले
हमीं छुपा न सके वर्ना दिल को क्या मा'लूम

फ़रेब-ए-अम्न में कुछ मस्लहत तो है वर्ना
सुकून-ए-कश्ती ओ तौफ़ीक़-ए-ना-ख़ुदा मा'लूम

वो इल्तिफ़ात कि था उस की इंतिहा भी है
ख़ुदा की मार कि दिल को यही न था मा'लूम

ये ज़िंदगी की है रूदाद-ए-मुख़्तसर 'फ़ानी'
वजूद-ए-दर्द मुसल्लम इलाज ना-मालूम