'फ़राज़' तर्क-ए-तअल्लुक़ तो ख़ैर क्या होगा
यही बहुत है कि कम कम मिला करो उस से
अहमद फ़राज़
तू ने ही तो चाहा था कि मिलता रहूँ तुझ से
तेरी यही मर्ज़ी है तो अच्छा नहीं मिलता
अहमद मुश्ताक़
यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
कोई रो कर तो कोई बाल बना कर आया
अहमद मुश्ताक़
ज़िंदगी के वो किसी मोड़ पे गाहे गाहे
मिल तो जाते हैं मुलाक़ात कहाँ होती है
अहमद राही
गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'
क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना
अमीर मीनाई
जम गई धूल मुलाक़ात के आईनों पर
मुझ को उस की न उसे मेरी ज़रूरत कोई
असअ'द बदायुनी
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
बशीर बद्र