चाँद उस घर के दरीचों के बराबर आया
दिल-ए-मुश्ताक़ ठहर जा वही मंज़र आया
मैं बहुत ख़ुश था कड़ी धूप के सन्नाटे में
क्यूँ तिरी याद का बादल मिरे सर पर आया
बुझ गई रौनक़-ए-परवाना तो महफ़िल चमकी
सो गए अहल-ए-तमन्ना तो सितमगर आया
यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
कोई रो कर तो कोई बाल बना कर आया
ग़ज़ल
चाँद इस घर के दरीचों के बराबर आया
अहमद मुश्ताक़