चारों तरफ़ हैं शोले हम-साए जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ
आलम ख़ुर्शीद
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
बशीर बद्र
तुम अभी शहर में क्या नए आए हो
रुक गए राह में हादसा देख कर
बशीर बद्र
यहाँ एक बच्चे के ख़ून से जो लिखा हुआ है उसे पढ़ें
तिरा कीर्तन अभी पाप है अभी मेरा सज्दा हराम है
बशीर बद्र
जला है शहर तो क्या कुछ न कुछ तो है महफ़ूज़
कहीं ग़ुबार कहीं रौशनी सलामत है
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
जुनूँ को होश कहाँ एहतिमाम-ए-ग़ारत का
फ़साद जो भी जहाँ में हुआ ख़िरद से हुआ
इक़बाल अज़ीम