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क्यूँ आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ | शाही शायरी
kyun aankhen band kar ke raste mein chal raha hun

ग़ज़ल

क्यूँ आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ

आलम ख़ुर्शीद

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क्यूँ आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ
क्या मैं भी रफ़्ता रफ़्ता पत्थर में ढल रहा हूँ

चारों तरफ़ हैं शोले हम-साए जल रहे हैं
मैं घर में बैठा बैठा बस हाथ मल रहा हूँ

मेरे धुएँ से मेरी हर साँस घुट रही है
मैं राह का दिया हूँ और घर में जल रहा हूँ

आँखों पे छा गया है कोई तिलिस्म शायद
पलकें झपक रहा हूँ मंज़र बदल रहा हूँ

तब्दीलियों का नश्शा मुझ पर चढ़ा हुआ है
कपड़े बदल रहा हूँ चेहरा बदल रहा हूँ

इस फ़ैसले से ख़ुश हैं अफ़राद घर के सारे
अपनी ख़ुशी से कब मैं घर से निकल रहा हूँ

इन पत्थरों पे चलना आ जाएगा मुझे भी
ठोकर तो खा रहा हूँ लेकिन सँभल रहा हूँ

काँटों पे जब चलूँगा रफ़्तार तेज़ होगी
फूलों भरी रविश पर बच बच के चल रहा हूँ

चश्मे की तरह 'आलम' अशआ'र फूटते हैं
कोह-ए-गिराँ की सूरत में भी उबल रहा हूँ