आगे आगे कोई मिशअल सी लिए चलता था
हाए क्या नाम था उस शख़्स का पूछा भी नहीं
शाज़ तमकनत
एक रात आप ने उम्मीद पे क्या रक्खा है
आज तक हम ने चराग़ों को जला रक्खा है
शाज़ तमकनत
कभी ज़ियादा कभी कम रहा है आँखों में
लहू का सिलसिला पैहम रहा है आँखों में
शाज़ तमकनत
किताब-ए-हुस्न है तू मिल खुली किताब की तरह
यही किताब तो मर मर के मैं ने अज़बर की
शाज़ तमकनत
कोई तो आ के रुला दे कि हँस रहा हूँ मैं
बहुत दिनों से ख़ुशी को तरस रहा हूँ मैं
शाज़ तमकनत
मिरा ज़मीर बहुत है मुझे सज़ा के लिए
तू दोस्त है तो नसीहत न कर ख़ुदा के लिए
शाज़ तमकनत
शब ओ रोज़ जैसे ठहर गए कोई नाज़ है न नियाज़ है
तिरे हिज्र में ये पता चला मिरी उम्र कितनी दराज़ है
शाज़ तमकनत
सुख़न राज़-ए-नशात-ओ-ग़म का पर्दा हो ही जाता है
ग़ज़ल कह लें तो जी का बोझ हल्का हो ही जाता है
शाज़ तमकनत
उन से मिलते थे तो सब कहते थे क्यूँ मिलते हो
अब यही लोग न मिलने का सबब पूछते हैं
शाज़ तमकनत