एक रात आप ने उम्मीद पे क्या रक्खा है
आज तक हम ने चराग़ों को जला रक्खा है
सौसन ओ नस्तरन ओ सुम्बुल ओ रैहान ओ गुलाब
तेरी यादों को गुलिस्ताँ में छुपा रक्खा है
वजह-ए-आवारगी-ए-इश्क़-ए-फ़सुर्दा मालूम
निगह-नाज़ को पर्दा सा बना रक्खा है
दर्द दौलत ही सही पहलू-ए-राहत ही सही
कुछ दिनों इश्क़ ने भी ख़ुद को बचा रक्खा है
ले उड़े अहल-ए-जुनूँ हुस्न की इक एक अदा
ख़ल्वत ओ बज़्म में अब फ़र्क़ ही क्या रक्खा है
हाए ख़ुश्बू से तिरे दर्द की निस्बत न गई
मैं ने हर फूल को सीने से लगा रक्खा है
आज तो शिकवा-ए-महरूमी-ए-दीदार नहीं
हम ने कल के लिए इस ग़म को उठा रक्खा है
ग़ज़ल
एक रात आप ने उम्मीद पे क्या रक्खा है
शाज़ तमकनत