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शिकन शिकन तिरी यादें हैं मेरे बिस्तर की | शाही शायरी
shikan shikan teri yaaden hain mere bistar ki

ग़ज़ल

शिकन शिकन तिरी यादें हैं मेरे बिस्तर की

शाज़ तमकनत

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शिकन शिकन तिरी यादें हैं मेरे बिस्तर की
ग़ज़ल के शेर नहीं करवटें हैं शब भर की

फिर आई रात मिरी साँस रुकती जाती है
सरकती आती हैं दीवारें फिर मिरे घर की

मुझे तो करनी पड़ी आबयारी-ए-सहरा
मगर नसीब में थी तिश्नगी समुंदर की

ये जम्अ ओ ख़र्च ज़बानी है नक़्द-ए-शेर-ओ-सुख़न
मगर यही तो कमाई है ज़िंदगी भर की

उसी ने बख़्शी है रंगीनी-ए-हयात मुझे
कभी कभी तो उसी ने हयात दूभर की

रिदा-ए-रंग से छनता हुआ बदन तेरा
ये चाँदनी कि तमाज़त है तेरे पैकर की

किताब-ए-हुस्न है तू मिल खुली किताब की तरह
यही किताब तो मर मर के मैं ने अज़बर की

सनम की आस लिए नोक-ए-तेशा बोता हूँ
मैं कब से फ़स्ल उगाता रहा हूँ पत्थर की

निबाह करता हूँ दुनिया से इस तरह ऐ 'शाज़'
कि जैसे दोस्ती हो आस्तीन ओ ख़ंजर की