आग भी बरसी दरख़्तों पर वहीं
काल बस्ती में जहाँ पानी का था
सलीम शहज़ाद
अन-कही कह अन-सुनी बातें सुना
रह गया जो कुछ भी सोचा सोच ले
सलीम शहज़ाद
बातों में है उस की ज़हर थोड़ा
थोड़ा सा मज़ा शराब जैसा
सलीम शहज़ाद
हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
वो इक ज़ख़्मी परिंदे की तरह था
सलीम शहज़ाद
कब तक इन आवारा मौजों का तमाशा देखना
गिन चुके हो साअतों के तार तो वापस चलो
सलीम शहज़ाद
उसे पता है कि रुकती नहीं है छाँव कभी
तो फिर वो अब्र को क्यूँ साएबाँ समझता है
सलीम शहज़ाद
वहम ओ ख़िरद के मारे हैं शायद सब लोग
देख रहा हूँ शीशे के घर चारों ओर
सलीम शहज़ाद
ज़र्द पत्ते में कोई नुक़्ता-ए-सब्ज़
अपने होने का पता काफ़ी है
सलीम शहज़ाद