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बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है | शाही शायरी
baal-o-par hon to faza kafi hai

ग़ज़ल

बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है

सलीम शहज़ाद

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बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है
वर्ना परवाज़-ए-अना काफ़ी है

हम गुमाँ-गश्त परिंदों के लिए
आसमाँ भी हो तो ना-काफ़ी है

इस ख़ुदाई से नहीं कोई ग़रज़
हम को बस नाम-ए-ख़ुदा काफ़ी है

ये जो इक हर्फ़-ए-दुआ है लब पर
ना-रसा हो कि रसा काफ़ी है

कुछ नहीं ज़ात के सहरा में मगर
मुंतशिर होने को जा काफ़ी है

ज़र्द पत्ते में कोई नुक़्ता-ए-सब्ज़
अपने होने का पता काफ़ी है