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रज़ी रज़ीउद्दीन शायरी | शाही शायरी

रज़ी रज़ीउद्दीन शेर

14 शेर

चश्मा-ए-नाब न बढ़ कर जुनूँ सैलाब बने
बह न जाए कि ये मिट्टी का मकाँ है अब के

रज़ी रज़ीउद्दीन




छलका पड़ा है चेहरों से इक वहशत-ए-जुनूँ
फैला पड़ा है इश्क़ का बाज़ार ख़ैर हो

रज़ी रज़ीउद्दीन




दीवाना-ए-ख़िरद हो कि मजनून-ए-इश्क़ हो
रहना है उस को चाक-गरेबाँ किए हुए

रज़ी रज़ीउद्दीन




दिल को जलाए रक्खा है हम ने चराग़ सा
इस घर में हम हैं और तिरा इंतिज़ार है

रज़ी रज़ीउद्दीन




दुश्मन-ए-जाँ हैं सभी सारे के सारे क़ातिल
तू भी इस भीड़ में कुछ देर ठहर जा ऐ दिल

रज़ी रज़ीउद्दीन




इस अँधेरे में जलते चाँद चराग़
रखते किस किस का वो भरम होंगे

रज़ी रज़ीउद्दीन




जगह बची ही नहीं दिल पे चोट खाने की
उठा लो काश ये आदत जो आज़माने की

रज़ी रज़ीउद्दीन




नश्शा-ए-यार का नशा मत पूछ
ऐसी मस्ती कहाँ शराबों में

रज़ी रज़ीउद्दीन




क़ल्ब-ओ-जिगर के दाग़ फ़रोज़ाँ किए हुए
हैं हम भी एहतिमाम-ए-बहाराँ किए हुए

रज़ी रज़ीउद्दीन