तमाम रात तिरा इंतिज़ार होता रहा
ये एक काम यही कारोबार होता रहा
रज़ी रज़ीउद्दीन
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तुम न थे तो यहाँ पे कोई न था
आज कितने दिवाने बैठे हैं
रज़ी रज़ीउद्दीन
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तुम्हारे शहर में क्यूँ आज हू का आलम है
सबा इधर से गुज़र कर उधर गई कि नहीं
रज़ी रज़ीउद्दीन
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उस का जल्वा दिखाई देता है
सारे चेहरों पे सब किताबों में
रज़ी रज़ीउद्दीन
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ये ज़ुल्फ़-ए-यार भी क्या बिजलियों का झुरमुट है
ख़ुदाया ख़ैर हो अब मेरे आशियाने की
रज़ी रज़ीउद्दीन
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