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कोह-ए-ग़म इतना गराँ इतना गराँ है अब के | शाही शायरी
koh-e-gham itna garan itna garan hai ab ke

ग़ज़ल

कोह-ए-ग़म इतना गराँ इतना गराँ है अब के

रज़ी रज़ीउद्दीन

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कोह-ए-ग़म इतना गराँ इतना गराँ है अब के
है कहाँ तीशा-गराँ आह-ए-गराँ है अब के

मय-कशों इतना न पी जाओ कि ग़म डूब जाए
फिर न फट जाए ये आतिश जो फ़शाँ है अब के

तंग-दामान ये दुनिया-ए-सितम ज़ोर-ए-अलम
बढ़ता जाए है रवाँ और दवाँ है अब के

चश्मा-ए-नाब न बढ़ कर जुनूँ सैलाब बने
बह न जाए कि ये मिट्टी का मकाँ है अब के

हर तरफ़ फैलते बढ़ते हुए ये ज़ीस्त के हाथ
बहर-ए-ज़ुल्मात में एक कूज़ा-ए-जाँ है अब के